Thursday, July 22, 2010

नीद

काली अँधेरी रात में
जब जागती है
कुछ कड़वी - मीठी स्मृतिया
और .....मेरे आँखों से
लगता है टपकने
बूँद बूँद खारा आंसू
शैने -शैने बहता है
धार बनकर भीतर तक
कोई कैसे सो सकता है
आँखों को बंद करके
जबकि निरंतर जारी है
सब कुछ !
और कल्पनाओ में
चित्रित होते है
पिछले दिनों की अनुभितिया
फिर कैसे कोई सो सकता है
इन अनुभितियो को ओढ़कर
आँखों को बंद कर ।

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